मौन-श्रद्धांजलि – ₹2,200 करोड़ की फुसफुसाहट
- Media Samvad Editor
- Aug 12
- 4 min read

प्रस्तावना – अंतहीन रात
हमारे पिछले लेख Economic Sabotage की कड़ी में, यह लेख नियामक जांच-तंत्र की दुखद मृत्यु पर एक भावपूर्ण शोक-संदेश है।
उनके अंतिम शब्द इतिहास में गूंजते रहेंगे:
"आर्थिक सुधार और ईज़ ऑफ़ डूइंग बिज़नेस ने आखिरकार हमें हमारी ड्यूटी और ज़िम्मेदारियों से मुक्त कर दिया है। अब हम चैन से सो सकते हैं — इस गहरी संतुष्टि के साथ कि इस देश ने आखिरकार कल्याण से ऊपर पूंजी को चुन लिया है।"
यह लेख ऐसे तथ्यों को प्रस्तुत करता है जो देश के नियामक ढांचे के मौखिक अंतिम संस्कार से कम नहीं हैं। Economic Sabotage के साथ पढ़ने पर, यह इतनी सनसनीखेज़ और चौंकाने वाली जानकारियाँ उजागर करता है कि यह सवाल खड़ा होता है — क्या “रेगुलेशन” शब्द कभी जनता की रक्षा के लिए बनाया भी गया था?
सबोटाज – 3 जनवरी 2005
जैसा कि हमने पहले लेख में बताया था:
3 जनवरी 2005 की एक सार्वजनिक रूप से उपलब्ध हाइपोथिकेशन डीड दर्शाती है कि BALCO की मैनपाट और कवर्धा, छत्तीसगढ़ की बॉक्साइट खदान लीज़ (जिन्हें भारत सरकार के ग्लोबल एडवाइज़र जार्डिन फ्लेमिंग ने “कोई मूल्य नहीं” घोषित किया था, और DIPAM सचिव ने संसद में इस पर गर्व से मुहर लगाई थी) — इन्हीं जमीनों को बाद में यूनियन बैंक ऑफ इंडिया से 700 करोड़ रुपये का लोन लेने के लिए गिरवी रखा गया।
मौखिक सहमति में अरबों का खेल
और कहानी यहीं खत्म नहीं होती — 13 जनवरी 2009 को, BALCO के अधिकृत हस्ताक्षरकर्ता श्री जे. वेंकट कन्नाडा और अनुप अग्रवाल ने यूनियन बैंक ऑफ इंडिया की अभा आनंद के समक्ष मात्र मौखिक सहमति (Oral Consent) देकर, न केवल पहले से गिरवी रखी खदानों की लीज को दोबारा उपयोग में लिया, बल्कि 21 बैंकों और LIC के लिए संयुक्त बंधक (Joint Mortgage) बनाकर कुल ₹1,710 करोड़ के अतिरिक्त ऋण का रास्ता खोल दिया।
यह सब, बैंकिंग लॉ की किताब में शायद एक “चमत्कार” कहलाए, लेकिन आम नागरिक के अनुभव में यह एक क्रूर विडंबना है —
जहाँ एक आम आदमी, साफ-सुथरे फ्रीहोल्ड टाइटल के साथ भी, बैंक से मामूली ऋण के लिए महीनों तक कागजी खानापूर्ति और थकाऊ वैल्यूएशन प्रक्रिया से गुजरता है; वहीं यहाँ मात्र “मौखिक सहमति” पर ₹2,210 करोड़ की कुल गिरवी राशि (₹500 करोड़ + ₹1,710 करोड़) स्वीकृत हो जाती है।
‘शून्य मूल्य’ से ₹2,210 करोड़ तक: हाइपोथिकेशन का चमत्कार
‘बेकार’ ज़मीन का पुनर्जन्म
2001 में, DIPAM सचिव ने, भारत सरकार के चुने हुए ग्लोबल एडवाइज़र जार्डिन फ्लेमिंग की सिफारिश पर, संसद और देश को बताया कि BALCO की मैनपाट और कवर्धा की बॉक्साइट खदानें “कोई मूल्य नहीं” रखतीं और इनके “स्पष्ट टाइटल डीड” भी नहीं हैं।
कारण? — ये संपत्तियाँ “आय-उत्पन्न नहीं कर रहीं” इसलिए वैल्यूएशन में इनका कोई महत्व नहीं।
"वैल्यूएशन की मास्टरक्लास — अगर आज आय नहीं दे रही, तो इसका मूल्य शून्य… बशर्ते आप खरीदार न हों।"
13/14 फरवरी 2009: 21 बैंकों + LIC का महा-संघ
2008-09 आते-आते यह ‘चमत्कार’ और बड़ा हो गया। एक मेमोरेंडम ऑफ़ एंट्री दर्ज करता है कि इन्हीं संपत्तियों पर संयुक्त रूप से 21 बैंकों का माडगेज और LIC द्वारा 500 करोड़ रुपये के निजी NCD प्लेसमेंट का बोझ चढ़ा दिया गया।
पूरा लोन-ब्रेकअप इस प्रकार है:
| क्र.सं. | बैंक / संस्था | स्वीकृत राशि (₹ करोड़) | 
| 1 | यूनियन बैंक ऑफ इंडिया (UBI) | 160 | 
| 2 | बैंक ऑफ इंडिया (BOI) | 25 | 
| 3 | इलाहाबाद बैंक (AB) | 10 | 
| 4 | कॉरपोरेशन बैंक (CB) | 50 | 
| 5 | HDFC | 50 | 
| 6 | ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स (OBC) | 100 | 
| 7 | स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एंड जयपुर (SBBJ) | 50 | 
| 8 | स्टेट बैंक ऑफ हैदराबाद (SBH) | 100 | 
| 9 | स्टेट बैंक ऑफ इंदौर (SBIN) | 100 | 
| 10 | स्टेट बैंक ऑफ मैसूर (SBM) | 50 | 
| 11 | स्टेट बैंक ऑफ पटियाला (SBP) | 100 | 
| 12 | स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (SBI) | 100 | 
| 13 | सिंडिकेट बैंक (SYB) | 100 | 
| 14 | फेडरल बैंक लिमिटेड (FBL) | 50 | 
| 15 | जम्मू & कश्मीर बैंक लिमिटेड (JKBL) | 100 | 
| 16 | कर्नाटक बैंक लिमिटेड (KBL) | 50 | 
| 17 | करुर वैश्य बैंक लिमिटेड (KVBL) | 50 | 
| 18 | लक्ष्मी विलास बैंक लिमिटेड (LVBL) | 15 | 
| 19 | यूको बैंक | 150 | 
| 20 | विजया बैंक (VB) | 50 | 
| 21 | एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट बैंक ऑफ इंडिया | 150 | 
| 22 | स्टेट बैंक ऑफ त्रावणकोर (SBT) | 100 | 
| कुल (सिर्फ बैंक) | 1,710 | |
| LIC NCDs (प्राइवेट प्लेसमेंट) | 500 | |
| ग्रैंड टोटल | 2,210 | 
"जब आपके पास 21 बैंक-मित्र हों, तो ज़मीन की कीमत बाज़ार तय नहीं करता — गेस्ट लिस्ट तय करती है।"
असंभव गणित
ज़रा साफ़-साफ़ समझिए:
- 2001: “नो टाइटल डीड” — "नो वैल्यू "----संसद में बयान। 
- 2005: यही ज़मीन UBI से ₹700 करोड़ का लोन लेने के लिए गिरवी। 
- 2008-09: यही ज़मीन मौखिक सहमति से 21 बैंकों और LIC से अतिरिक्त लोन व डिबेंचर के लिए गिरवी। 
- अगर डीड 1992-97 से मौजूद थीं, तो 2001 के वैल्यूएशन में “गायब” कैसे थीं? 
- अगर ज़मीन “बेकार” थी, तो 2,210 करोड़ का लोन और डिबेंचर कैसे दिला दी? 
- यह वैल्यूएशन में चूक नहीं; यह वैल्यूएशन ग़ायब करने की कला है। 
"या तो टाइटल डीड टाइम-ट्रैवल करके आईं, या BALCO में कोई जादुई आलमारी है — जिस पर लिखा है: ‘सिर्फ़ निजी उधारदाताओं के लिए खुलती है।’"
निष्कर्ष – मौखिक अंतिम संस्कार जारी है
यह केवल विरोधाभास नहीं; यह भारत की नियामक विश्वसनीयता का शोक-संदेश है।सार्वजनिक संपत्तियों का मूल्य घटाना और फिर निजी लाभ के लिए उन्हें ज़्यादा-से-ज़्यादा गिरवी रखना — यह सिस्टमेटिक मिलीभगत का पाठ्य-पुस्तक उदाहरण है।
एक समय था, जब ईस्ट इंडिया कंपनी तोप और जहाज़ से ज़मीन छीनती थी। अब उनके आध्यात्मिक उत्तराधिकारी लोन एग्रीमेंट और हाइपोथिकेशन डीड से छीनते हैं।
"पहले ज़मीन विदेशी आक्रांताओं को जाती थी; अब हम ख़ुद अपने दस्तख़त से उन्हें गिरवी रखते हैं।"
बने रहिए! — अगले भाग में हम उजागर करेंगे कि कैसे कॉरपोरेट चालबाज़ियों ने नियामकों को कठपुतली बना दिया।






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