सिंडिकेट – ढाँचा
- Media Samvad Editor
- Aug 19
- 3 min read

प्रस्तावना
हमारे पिछले लेख “द सिंडिकेट” के आगे बढ़ते हुए, अब हम प्रस्तुत कर रहे हैं इस सिस्टम की अनोखी कृति – इसका ढाँचा।“द सिंडिकेट” का जन्म हुआ सुनियोजित आर्थिक अपराधों को एक संवैधानिक चादर ओढ़ाकर अंजाम देने के लिए।
आज से हर तथ्य, हर सबूत और हर घटना आपके सामने रखी जाएगी — ताकि वाइसराय रिसर्च द्वारा लगाए गए आरोप , महज़ हवाई बातें न लगें बल्कि पत्थर की लकीर साबित हों।
आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है
सोचिए, एक आम आदमी को अपने धंधे के लिए पैसों की ज़रूरत है। उसके विकल्प क्या हैं?
रिश्तेदारों से उधार ले लो (वो भी लिमिटेड रकम)।
बैंक जाओ और फॉर्म–फॉर्मालिटी के चक्कर में पड़ो।
बैंक में क्या करना होगा?
प्रॉपर्टी गिरवी रखनी होगी।
नो–इनकम्ब्रन्स सर्टिफिकेट देना होगा।
RBI से मान्यता प्राप्त वैल्यूअर से रिपोर्ट लानी होगी।
और फिर भी बैंक बोलेगा – “भाई, प्रॉपर्टी की वैल्यू का 60% ही देंगे। बाकी तुम खुद झेलो।” अब बेचारा borrower सोचे – धंधा करूँ या बैंकों का क्लर्क बन जाऊँ?
अब ज़रा बड़े कॉरपोरेट हाउस को देखिए
बड़े कॉरपोरेट को अरबों–खरबों की फंडिंग चाहिए। उनके विकल्प क्या हैं?
- पब्लिक इश्यू लाओ - कानूनी झंझट, 
- जनता की निगरानी, 
- बोर्ड कंट्रोल खोने का डर, 
- और फंड डायवर्ज़न करना नामुमकिन। 
- यानी, बोरिंग और बेकार! 
 
- बैंक लोन लो - बैंक purpose पूछेगा, 
- एसेट गिरवी रखो, 
- स्वतंत्र वैल्यूएशन कराओ, 
- पैसे कहाँ खर्च हो रहे हैं उसका हिसाब दो। 
- यानी, जीना हराम कर देगा बैंक। 
 
- नॉन–कन्वर्टिबल डिबेंचर्स (NCDs) जारी करो - बस बोर्ड रेज़ोल्यूशन पास करो। 
- NCD कोलैटरल से बैक होना चाहिए (कागज़ पर)। 
- वैल्यूएशन कर लो (कागज़ पर)। 
- और डिफ़ॉल्ट होने तक कोई पूछेगा तक नहीं। 
- यानी, यही है असली मज़ा! 
 
द सिंडिकेट – एक परफ़ेक्ट समाधान
अब मैदान में आता है द सिंडिकेट।एक ऐसा नेटवर्क जो जोड़ता है:
- कॉरपोरेट्स, 
- बैंकर्स, 
- ट्रस्टीज़, 
- और रेगुलेटर्स को। 
सब मिलकर रचते हैं एक वैध ठगी तंत्र, जहाँ पैसों का आवागमन होता है लेकिन हिसाब किताब सिर्फ़ “काग़ज़ी घोड़ों” पर।
भूमिकाएँ और फायदे
- कॉरपोरेट - फर्ज़ी प्रोजेक्ट्स दिखाकर फंडिंग माँगना। 
- बिना असली वैल्यूएशन के कोलैटरल पेपर बनाना। 
- पैसे डायवर्ट करने के लिए सुरक्षित रास्ते बनाना। 
- अकाउंटिंग के छेदों का फायदा उठाना। 
- फायदा: फंडिंग आराम से, और गारंटी सिर्फ़ कागज़ों पर। 
 
- ट्रस्टी - नाम SEBI से प्रमाणित, असलियत में borrower के नौकर। 
- सर्टिफिकेट ऑफ़ एश्योरेंस जारी करना। 
- फायदा: मोटा कमीशन, और कानून की किताब देखकर मीठी नींद। 
 
- बैंकर - ट्रस्टी का सर्टिफिकेट देखकर आँख मूँदकर पैसे दे देना। 
- फायदा: मोटा ब्याज़, और डिफ़ॉल्ट होने पर भी डर नहीं क्योंकि “ट्रस्टी है ना!” 
 
- रेगुलेटर्स - काम बस इतना कि कागज़ी फ़ाइलें पूरी हैं या नहीं देख लो। 
- असली कंटेंट कौन देखता है? ट्रस्टी का सर्टिफिकेट है न! 
- फायदा: अप्रत्यक्ष!!!!!!!!!“हमारी कुर्सी सुरक्षित है, और सिस्टम संवैधानिक लगता है।” 
 
संवैधानिक वैधता का चमत्कार
पूरी ख़ूबसूरती यह है कि सब कुछ संवैधानिक ढाँचे में दिखता है।किसी भी जांच में — जब तक डिफ़ॉल्ट या फॉरेंसिक ऑडिट न हो — कुछ गलत दिखाई ही नहीं देगा।और अगर डिफ़ॉल्ट हो भी गया तो नया लोन लेकर पुराना चुका दो।यानी, पुराने वक्त का साहूकार भी शर्मा जाए!
पोंज़ी के आरोप
Viceroy Research का कहना है कि यह स्ट्रक्चर पूरे का पूरा पोंज़ी स्कीम है।
- नया लोन लेकर पुराना चुकाना। 
- फिर नया लेकर और पुराना चुकाना। 
- और यह चक्र चलता रहे अनंत तक। 
यानी, गणित का सवाल — “यदि ऋण X को ऋण Y से चुकाया जाए, और Y को Z से… तो अंत में पब्लिक का पैसा कहाँ गया?” — का कोई हल नहीं है!
निष्कर्ष
सिर्फ़ शक से अपराध साबित नहीं होता।पुख़्ता सबूत चाहिए।आने वाले भागों में हर तथ्य, हर आँकड़ा और हर साक्ष्य सामने रखा जाएगा — ताकि शक हकीकत में बदल जाए।





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